सोमवार, ऑगस्ट १७, २००९

रामधारी सिंह दिनकर: रश्मिरथी

रश्मिरथी हे श्री रामधारी सिंह दिनकर यांचं महाभारता वर केलेलं महाकाव्य। त्यातली एक कविता इथे प्रस्तुत करण्यात येत आहे। ह्या कवितेतला काही भाग गुलाल सिनेमा मधे पियूष मिश्रा ने म्हंटला होता। तो भाग ठळक करण्यात आला आहे। ह्या कवितेत दिनकरांनी युधिष्ठिराचा संदेश घेऊन पोहोचलेल्या श्रीकृष्णाचा आणि दुर्योधनाचा संवाद वर्णन केलेला आहे।

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा विघ्नों को चूम चूम,
सह धूप घाम पानी पत्थर,
पांडव आए कुछ और निखर|

सौभाग्य ना सब दिन सोता है,
देखें आगे क्या होता है |

मैत्री की राह दिखाने कॉम
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस से बचाने को |

भगवान हस्तिनापुर आए,
पांडव का संदेशा लाए |

दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रखो अपनी धरती तमाम |

हम वहीं खुशी से खाएंगे,
परिजन पे असि उठाएंगे |

दुर्योधन वह भी दे सका,
आशीष समाज की ले सका,
उल्टे हरि को बांधने चला,
जो था असाध्य साधने चला|

जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है |

हरि ने भीषण हुंकार दिया,
अपना स्वरूप विस्तार किया,
डगमग डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले |

ज़ंजीर बढ़ा अब साध मुझे,
हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे|

यह देख गगन मुझमें लय है,
यह देख पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल |

अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें,

उदयाचल मेरे दीप्त भाल,
भू-मंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधी बाँध को घेरे है,
मैनाक मेरु पग मेरे हैं |

दीप्ते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब है मेरे मुख के अंदर |

दृग हो तो दृश्य अखंड देख,
मुझमें सारा ब्रम्हांड देख,
चर-अचर जीव जग क्षर अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुर जाती अमर |

शत कोटि सूर्य शत कोटि चंद्र,
शत कोटि सरित सर सिंधु मंद्र |
शत कोटि ब्रम्‍हा विष्णु महेश,
शत कोटि जलपति जिश्नू धनेश,
शत कोटि रुद्र शत कोटि काल,
शत कोटि दंड धर लोकपाल |

ज़ंजीर बनाकर साध इन्हे,
हाँ हाँ दुर्योधन बाँध इन्हे |

भूतल अटल पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि सृजन,
यह देख महाभारत का रण |

मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान कहाँ इसमें तू है |

अंबर का कुन्तल जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुठ्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विक्राल देख |

सब जन्म मुझीसे पाते हैं,
फिर लौट मुझीमें आते हैं |

जिव्हा से कढ़ती ज्वाल सघन,
सांसों से पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हसने लगती सृष्टि उधर |

मैं जबही मूंदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण |

बाँधने मुझे तू आया है,
ज़ंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधने चाहे मन,
पहले तू बाँध अनंत गगन |

सुने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

हित वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले अब मैं भी जाता हूँ,
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ |

याचना नही अब रण होगा,
जीवन जय या कि मरण होगा |


टकराएँगे नक्षत्र निखर,
बरसेगी भू पर वहीं प्रखर,
फ़न शेषनाग का डोलेगा,
विक्राल काल मुँह खोलेगा |

दुर्योधन रण ऐसा होगा,
फ़िर कभी नहीं जैसा होगा|

भाई भाई पर टूटेंगे,
विष बाण बूंद से छूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे,
वायस श्रिगाल सुख लूटेंगे |

आख़िर तू भूशायी होगा,
हिंसा का परदायी होगा |

थी सभा सन्न लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े,
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र विदुर सुख पाते थे |

कर जोड़ प्रमुदित निर्भय,
दोनों पुकारते थे जय जय ||
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